आज के सवाल करने वाले आर्य समाजी खुद तो कहते हैं कि हमारे नजदीक दयानन्द जी की तफसीर/ भाष्य के अलावा कोई काबिले यकीन नहीं। और मुसलमानों को बे सनद रिवायात के मुलजिम करते हैं।
बे सनद कोई हिकायत और रिवायत मोतबर और सही नहीं समझी जाती, सनद से मुराद मुहद्दीसीन के मुहावरे में यह है कि अव्वल कहने वाला अपने बतलाने वाले का नाम बतलाये वह अपने का वह अपने का यहां तक कि सिलसिला रिवायत आखिर तक पहुंच जाये।
साहब मआलिम जो छटी सदी में हुआ है आं हज़रत सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के ज़माने में मौजूद नहीं था। साहब मआलिम ने यह रिवायत इब्न जरीर मुफस्सिर की तफसीर से ली है इब्न जरीर की रिवायत और मआलिम की रिवायत में फर्क भी है जरीर ने अपनी तफसीर में इब्न जेद से यह रिवायत ली बस सारा दारोमदार इस रिवायत का इब्न जेद पर है और इब्न जेद को इल्मुर्रिजाल में पांचवी तब्के का रावी लिखा है लिहाज़ा यह रिवायत मुनकते होने की वजह से मरदूद की किस्म में है।
मुफस्सिर खाजिन लिखते हैं यह नबूव्वत की शान के लायक नहीं कि लोगों को तो मना करेंगे किसी चीज की तरु आंख उठा कर भी न देखो और खुद करें। यह रिवायत दर हकीकत इसके कहने वाले का हजरत की शान पर बडा हमला है क्यूंकि यह बात कही जाती है कि आंहज़रत ने जेनब को देखा तो उनको बहुत पसंद आयी हालांकि जब से वह पैदा हुई थी आपके सामने थी क्यूंकि वह आपकी फूफीज़ाद थी और परदे के हुकम से पहले औरतें आपसे परदा भी न करती थीं और खुद आंहज़रत ही ने जेद से इसका निकाह कराया था, बस आंहज़रत की शान इससे पाक है कि जेद को तो हुकम दें कि जेनब को छोड नहीं और दिल में उसी तलाक़ चाहें जैसा की मुफस्सिरीन की एक जमात ने जिक्र किया है।
जेद को कैसे मालूम हुआ कि हजरत के दिल में क्या है जबकि हजरत ने किसी से अपने दिल का हाल ज़ाहिर नहीं किया, बस नतीजा साफ है कि जिस किसी ने यह रिवायत बयान की है महज अपने खयाल से की है वरना असल हाल यह नहीं बल्कि असल वही है जो कुरआन मजीद ने बतलाया है।
Quran 33:37
याद करो (ऐ नबी), जबकि तुम उस व्यक्ति से कह रहे थे जिसपर अल्लाह ने अनुकम्पा की, और तुमने भी जिसपर अनुकम्पा की कि "अपनी पत्नी को अपने पास रोक रखो और अल्लाह का डर रखो, और तुम अपने जी में उस बात को छिपा रहे हो जिसको अल्लाह प्रकट करनेवाला है। तुम लोगों से डरते हो, जबकि अल्लाह इसका ज़्यादा हक़ रखता है कि तुम उससे डरो।" अतः जब ज़ैद उससे अपनी ज़रूरत पूरी कर चुका तो हमने उसका तुमसे विवाह कर दिया, ताकि ईमानवालों पर अपने मुँह बोले बेटों की पत्नियों के मामले में कोई तंगी न रहे जबकि वे उनसे अपनी ज़रूरत पूरी कर लें। अल्लाह का फ़ैसला तो पूरा होकर ही रहता है।
यह आयत कुरआनी का अनुवाद है इस पर कया एतराज़ है बडे से बडा एतराज इस पर यह हो सकता है कि आंहजरत ने अपने लेपालक की तलाकशुदा बीवी से क्यूं निकाह किया।
इसका जवाब दो तरह से है।
1. गुनाह वह होता है जो क़ानून कुदरत के खिलाफ हो या किसी शरियत में उसकी मुमानिअत हो लेपालक की तलाकशुदा से निकाह करना कानून कुदरत है लेपालक असल बेटा नहीं होता जिसे खुदा ने नहीं जोडा उसको जोडना गुनाह है इस लिए जरूरी थी कि इस रस्म के मिटाने के लिए जबरदस्त आदमी को मुन्तखब किया जाये।
2. दूसरी वजह धार्मिक गुनाह होने की भी नहीं पायी जाती तौरात, इन्जील बल्कि वेदों तक इसको गुनाह बतलाने में खामोश हैं। कोई ऐसा किसी धर्म से मन्त्र शलोक दिखलाओ वर्ना एतराज से बाज आओ।
आर्य समाजियों को तो खास तौर से मौलाना सनाउल्लाह अमृतसरी कहते हैं कि वेद को तमाम उलूम की कान मान कर वेदों में इसकी मनाही न दिखा सको तो किस मुंह से इस को गुनाह कहते हो।
निकाह कहां, कैसे हुआ तारीख में यूं भी तो मिलता है-
मौलाना सनाउल्लाह अमृतसरी ''मुकद्दस रसूल'' पृष्ठ 77 , लिखते हैं---
असल वाकिआ यह है कि बाकायदा निकाह हुआ, ज़ेनब का भाई अबू अहमद उसकी तरफ से वली बनकर शरीक मजलिस हुआ, तारीख इब्ने हुश्शाम में यूं बयान है-
''आं हज़रत सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने जेनब बिन्त हजश के साथ निकाह किया और उसके भाई अबु अहमद ने उसकी वकालत की, आंहज़रत सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने जेनब को चार सो दिरहम महर दिया, (हाशिया जादल्मआ , मिस्री, पृष्ठ 424)
बे सनद कोई हिकायत और रिवायत मोतबर और सही नहीं समझी जाती, सनद से मुराद मुहद्दीसीन के मुहावरे में यह है कि अव्वल कहने वाला अपने बतलाने वाले का नाम बतलाये वह अपने का वह अपने का यहां तक कि सिलसिला रिवायत आखिर तक पहुंच जाये।
साहब मआलिम जो छटी सदी में हुआ है आं हज़रत सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के ज़माने में मौजूद नहीं था। साहब मआलिम ने यह रिवायत इब्न जरीर मुफस्सिर की तफसीर से ली है इब्न जरीर की रिवायत और मआलिम की रिवायत में फर्क भी है जरीर ने अपनी तफसीर में इब्न जेद से यह रिवायत ली बस सारा दारोमदार इस रिवायत का इब्न जेद पर है और इब्न जेद को इल्मुर्रिजाल में पांचवी तब्के का रावी लिखा है लिहाज़ा यह रिवायत मुनकते होने की वजह से मरदूद की किस्म में है।
मुफस्सिर खाजिन लिखते हैं यह नबूव्वत की शान के लायक नहीं कि लोगों को तो मना करेंगे किसी चीज की तरु आंख उठा कर भी न देखो और खुद करें। यह रिवायत दर हकीकत इसके कहने वाले का हजरत की शान पर बडा हमला है क्यूंकि यह बात कही जाती है कि आंहज़रत ने जेनब को देखा तो उनको बहुत पसंद आयी हालांकि जब से वह पैदा हुई थी आपके सामने थी क्यूंकि वह आपकी फूफीज़ाद थी और परदे के हुकम से पहले औरतें आपसे परदा भी न करती थीं और खुद आंहज़रत ही ने जेद से इसका निकाह कराया था, बस आंहज़रत की शान इससे पाक है कि जेद को तो हुकम दें कि जेनब को छोड नहीं और दिल में उसी तलाक़ चाहें जैसा की मुफस्सिरीन की एक जमात ने जिक्र किया है।
जेद को कैसे मालूम हुआ कि हजरत के दिल में क्या है जबकि हजरत ने किसी से अपने दिल का हाल ज़ाहिर नहीं किया, बस नतीजा साफ है कि जिस किसी ने यह रिवायत बयान की है महज अपने खयाल से की है वरना असल हाल यह नहीं बल्कि असल वही है जो कुरआन मजीद ने बतलाया है।
Quran 33:37
याद करो (ऐ नबी), जबकि तुम उस व्यक्ति से कह रहे थे जिसपर अल्लाह ने अनुकम्पा की, और तुमने भी जिसपर अनुकम्पा की कि "अपनी पत्नी को अपने पास रोक रखो और अल्लाह का डर रखो, और तुम अपने जी में उस बात को छिपा रहे हो जिसको अल्लाह प्रकट करनेवाला है। तुम लोगों से डरते हो, जबकि अल्लाह इसका ज़्यादा हक़ रखता है कि तुम उससे डरो।" अतः जब ज़ैद उससे अपनी ज़रूरत पूरी कर चुका तो हमने उसका तुमसे विवाह कर दिया, ताकि ईमानवालों पर अपने मुँह बोले बेटों की पत्नियों के मामले में कोई तंगी न रहे जबकि वे उनसे अपनी ज़रूरत पूरी कर लें। अल्लाह का फ़ैसला तो पूरा होकर ही रहता है।
यह आयत कुरआनी का अनुवाद है इस पर कया एतराज़ है बडे से बडा एतराज इस पर यह हो सकता है कि आंहजरत ने अपने लेपालक की तलाकशुदा बीवी से क्यूं निकाह किया।
इसका जवाब दो तरह से है।
1. गुनाह वह होता है जो क़ानून कुदरत के खिलाफ हो या किसी शरियत में उसकी मुमानिअत हो लेपालक की तलाकशुदा से निकाह करना कानून कुदरत है लेपालक असल बेटा नहीं होता जिसे खुदा ने नहीं जोडा उसको जोडना गुनाह है इस लिए जरूरी थी कि इस रस्म के मिटाने के लिए जबरदस्त आदमी को मुन्तखब किया जाये।
2. दूसरी वजह धार्मिक गुनाह होने की भी नहीं पायी जाती तौरात, इन्जील बल्कि वेदों तक इसको गुनाह बतलाने में खामोश हैं। कोई ऐसा किसी धर्म से मन्त्र शलोक दिखलाओ वर्ना एतराज से बाज आओ।
आर्य समाजियों को तो खास तौर से मौलाना सनाउल्लाह अमृतसरी कहते हैं कि वेद को तमाम उलूम की कान मान कर वेदों में इसकी मनाही न दिखा सको तो किस मुंह से इस को गुनाह कहते हो।
निकाह कहां, कैसे हुआ तारीख में यूं भी तो मिलता है-
मौलाना सनाउल्लाह अमृतसरी ''मुकद्दस रसूल'' पृष्ठ 77 , लिखते हैं---
असल वाकिआ यह है कि बाकायदा निकाह हुआ, ज़ेनब का भाई अबू अहमद उसकी तरफ से वली बनकर शरीक मजलिस हुआ, तारीख इब्ने हुश्शाम में यूं बयान है-
''आं हज़रत सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने जेनब बिन्त हजश के साथ निकाह किया और उसके भाई अबु अहमद ने उसकी वकालत की, आंहज़रत सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने जेनब को चार सो दिरहम महर दिया, (हाशिया जादल्मआ , मिस्री, पृष्ठ 424)